आचार्य श्रीराम किंकर जी >> श्री हनुमानजी महाराज श्री हनुमानजी महाराजश्रीरामकिंकर जी महाराज
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श्रीहनुमान का चरित्र-चित्रण....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
संयोजकीय
रामकथा शिरोमणि सद्गुरुदेव परमपूज्य श्री रामकिंकर जी महाराज की वाणी और
लेखनी दोनों में यह निर्णय कर पाना कठिन है कि अधिक हृदयस्पर्शी या
तात्त्विक कौन है। वे विषयवस्तु का समय, समाज एवं व्यक्ति की पात्रता का
आँकते हुए ऐसा विलक्षण प्रतिपादन करते हैं कि ज्ञानी, भक्त या कर्मपरायण
सभी प्रकार के जिज्ञासुओं को उनकी मान्यता के अनुसार श्रेय और प्रेय दोनों
की प्राप्ति हो जाती है।
हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
छतरपुर-नौगाँव के श्री जयनारायणजी अग्रवाल महाराजश्री के शिष्य हैं, वे मौन रहकर अनेक सेवाकार्य देखते हैं। उनका तथा बुन्देलखण्ड परिवार का इस पुस्तक में आर्थिक सहयोग रहा। उनको महाराजश्री का आशीर्वाद !
हमारे यहाँ विस्तार और संक्षेप, व्यास और समास दोनों ही विधाओं के समयानुकूल उपयोग की परम्परा रही है। घटाकाश और मटाकाश दोनों ही चिंतन और प्रतिपादन के केन्द्र रहे हैं। प्रवचनों के प्रस्तुत छोटे अंक घटाकाश के रूप में हैं, उनमें सब कुछ है पर संक्षेप में है। पाठकों की कई बार ऐसी राय बनी कि थोड़ा साहित्य छोटे रूप में भी हो ताकि प्रारम्भिक रूप में या फिर यात्री आदि में लोग किसी एक विषय का अध्ययन करने के लिए उसे साथ लेकर चल सकें। इस मनोधारणा से यह कार्य श्रेयस्कर है।
छतरपुर-नौगाँव के श्री जयनारायणजी अग्रवाल महाराजश्री के शिष्य हैं, वे मौन रहकर अनेक सेवाकार्य देखते हैं। उनका तथा बुन्देलखण्ड परिवार का इस पुस्तक में आर्थिक सहयोग रहा। उनको महाराजश्री का आशीर्वाद !
मैथिलीशरण
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।5/16/2
होहु तात बल सील निधाना।।
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू।।5/16/2
श्री हनुमानजी महाराज
श्री हनुमानजी महाराज की भूमिका ‘श्रीरामचरितमानस’
में इतनी
अद्भुत है कि उसकी कितनी भी चर्चा की जाय वह कभी पूरी नहीं की जा सकती।
जैसा विलक्षणता श्री हनुमानजी के चरित्र में है, वैसी किसी बिरले भक्त या
महापुरुष के जीवन में ही पायी जा सकती है।
‘श्रीरामचरितमानस’
में चार घाटों की कल्पना की गयी है। जैसे किसी सरोवर में चार घाट बने हुए
हों तथा उसमें भिन्न-भिन्न दिशाओं से, भिन्न-भिन्न सीढ़ियों से उतरकर
व्यक्ति सरोवर का उपयोग करता है। उसी प्रकार से गोस्वामीजी
‘श्रीरामचरितमानस’ की तुलना मानसरोवर से करते हैं,
परन्तु
अन्तर यह करते हैं कि हिमालय क मानसरोवर में सीढ़ियाँ नहीं हैं और
उन्होंने श्रीरामचरित रूपी मानसरोवर में सीढ़ियों का निर्माण किया तथा
सीढ़ियों के माध्यम से भिन्न-भिन्न दिशाओं से आये हुए साधकों को
श्रीरामचरित के सरोवर में स्नान करने के लिए निमन्त्रित किया। वे चार घाट
हैं—ज्ञान, भक्ति एवं कर्म तथा इन तीनों के साथ-साथ शरणागति के
रूप
में एक चौथे घाट की भी कल्पना की।
प्राचीन काल में सरोवर पर तीन ओर मनुष्यों को जल पीने के लिए मार्ग बनाया जाता था और चौथी ओर पशुओं के लिए बिना किसी सीढ़ी का एक घाट बनाया जाता था। आपने प्राचीन सरोवरों में देखा होगा कि तीन ओर तो सीढ़ी होती है, पर चौथी ओर सीढ़ी न होकर सपाट घाट हुआ करते हैं जिससे उतरकर पशु भी जल पी सकें। गोस्वामीजी की मान्यता यह है कि ज्ञान, भक्ति और कर्म की दृष्टि से तो श्रीराम के तत्त्व, चरित्र और स्वरूप का चिन्तन किया ही जा सकता है, परन्तु इन तीनों के अभाव में यदि किसी को असमर्थता की अनुभूति हो रही हो अर्थात् जो सीढ़ियों से उतरने में असमर्थ हैं तो उसके लिए चौथे घाट का निरूपण किया गया। ज्ञान, भक्ति और कर्म में साधना के सोपान या क्रम हैं, एक के बाद दूसरी साधना कैसे की जाय ? इन तीनों में भी एक क्रम है। जिसके जीवन में इन तीनों के अभाव की अनुभूति हो रही हो, वह क्या करे ? उनके लिए गोस्वामीजी एक ऐसे घाट की भी कल्पना करते हैं जिसमें साधना की सीढ़ियों का अभाव है और बिलकुल सहज भाव से उतरकर वह भी जल पीकर धन्य हो सकता है। गोस्वामीजी अपने आपको इसी घाट से जोड़ते हैं क्योंकि अपने स्वयं के बारे में उनकी मान्यता यह है कि वे ज्ञान, भक्ति या कर्म के अधिकारी नहीं हैं। उन्होंने शरणागति या दैन्य के मार्ग—इस चौथे घाट—से भगवान् के चरित्र और स्वभाव का आनन्द पाया।
यदि आपमें विचार की सामर्थ्य है तो उसका सदुपयोग कीजिए, यह ज्ञान मार्ग है। यदि आपमें भावना की सामर्थ्य है तो उसका सदुपयोग कीजिए, भक्ति के माध्यम से। यदि आपमें पुरुषार्थ और कर्म की क्षमता है तो आप उसका सदुपयोग कीजिए, कर्म के माध्यम से। ये तो सामर्थ्य की बातें हुईं, लेकिन अगर असमर्थता की अनुभूति हो रही हो तो भी आप भगवान् की कृपा से भगवान् को प्राप्त करते हैं। जो असमर्थ व्यक्ति भगवान् की कृपा को प्राप्त करता है, वह अपनी साधना और सामर्थ्य से भगवान् को प्राप्त नहीं करता, बल्कि भगवान् की कृपा से ही भागवान् को प्राप्त करता है। भक्ति, ज्ञान और कर्म में जहाँ साधना को महत्त्व प्राप्त है, वहाँ चौथे मार्ग में साधना के स्थान पर कृपा को ही सब कुछ स्वीकार किया गया है। इस प्रकार उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अर्थात् समर्थ और असमर्थ दोनों को ही भगवान् को ओर अग्रसर करने की चेष्टा की है। समर्थ भी श्रीराम के द्वारा धन्य हो सकता है और असमर्थ भी।
‘रामायण’ में चार आचार्यों की भी कल्पना की गयी—ज्ञानघाट के आचार्य श्री शंकरजी, भक्तिघाट के श्री काकभुशुण्डिजी, कर्मघाट के श्री याज्ञवल्क्यजी और शरणागति तथा दैन्यघाट के श्रीगोस्वामीजी स्वतः हैं। यदि हम श्री हनुमानजी के सम्बन्ध में विचार करें कि श्री हनुमानजी इन चारों घाटों में से किस घाट के आचार्य हैं ? या किस साधना पद्धति के द्वारा भगवान के पास पहुँचने का पथ प्रशस्त करते हैं ? तो हनुमानजी के चरित्र में यह विलक्षणता मिलेगी कि कर्म की दृष्टि से देखें तो उनमें कर्म की पूर्णता है, यदि भक्ति की दृष्टि से देखें तो उनमें भक्ति की पूर्णता है, ज्ञान की दृष्टि से देखें तो उनमें ज्ञान की पूर्णता है और शरणागति की दृष्टि से देखें तो उनमें दैन्य और शरणागति की भी पराकाष्ठा है। इन चारों का एक ही पात्र में जो अद्भुत समन्वय आपको मिलेगा, वह श्री हनुमानजी हैं। इसीलिए श्री हनुमानजी जिन लोगों को भगवान् से मिलाते हैं, उनमें बड़ी भिन्नता होती है।
हनुमान्जी के चरित्र में एक सूत्र आपको और मिलेगा कि हनुमानजी का रूप सर्वदा बदलता रहता है। वे ही हनुमानजी कहीं लघु हैं, कहीं अति लघु हैं, ये दोनों शब्द भी आपको मिलेंगे। लंका जलाने के पश्चात्-
प्राचीन काल में सरोवर पर तीन ओर मनुष्यों को जल पीने के लिए मार्ग बनाया जाता था और चौथी ओर पशुओं के लिए बिना किसी सीढ़ी का एक घाट बनाया जाता था। आपने प्राचीन सरोवरों में देखा होगा कि तीन ओर तो सीढ़ी होती है, पर चौथी ओर सीढ़ी न होकर सपाट घाट हुआ करते हैं जिससे उतरकर पशु भी जल पी सकें। गोस्वामीजी की मान्यता यह है कि ज्ञान, भक्ति और कर्म की दृष्टि से तो श्रीराम के तत्त्व, चरित्र और स्वरूप का चिन्तन किया ही जा सकता है, परन्तु इन तीनों के अभाव में यदि किसी को असमर्थता की अनुभूति हो रही हो अर्थात् जो सीढ़ियों से उतरने में असमर्थ हैं तो उसके लिए चौथे घाट का निरूपण किया गया। ज्ञान, भक्ति और कर्म में साधना के सोपान या क्रम हैं, एक के बाद दूसरी साधना कैसे की जाय ? इन तीनों में भी एक क्रम है। जिसके जीवन में इन तीनों के अभाव की अनुभूति हो रही हो, वह क्या करे ? उनके लिए गोस्वामीजी एक ऐसे घाट की भी कल्पना करते हैं जिसमें साधना की सीढ़ियों का अभाव है और बिलकुल सहज भाव से उतरकर वह भी जल पीकर धन्य हो सकता है। गोस्वामीजी अपने आपको इसी घाट से जोड़ते हैं क्योंकि अपने स्वयं के बारे में उनकी मान्यता यह है कि वे ज्ञान, भक्ति या कर्म के अधिकारी नहीं हैं। उन्होंने शरणागति या दैन्य के मार्ग—इस चौथे घाट—से भगवान् के चरित्र और स्वभाव का आनन्द पाया।
यदि आपमें विचार की सामर्थ्य है तो उसका सदुपयोग कीजिए, यह ज्ञान मार्ग है। यदि आपमें भावना की सामर्थ्य है तो उसका सदुपयोग कीजिए, भक्ति के माध्यम से। यदि आपमें पुरुषार्थ और कर्म की क्षमता है तो आप उसका सदुपयोग कीजिए, कर्म के माध्यम से। ये तो सामर्थ्य की बातें हुईं, लेकिन अगर असमर्थता की अनुभूति हो रही हो तो भी आप भगवान् की कृपा से भगवान् को प्राप्त करते हैं। जो असमर्थ व्यक्ति भगवान् की कृपा को प्राप्त करता है, वह अपनी साधना और सामर्थ्य से भगवान् को प्राप्त नहीं करता, बल्कि भगवान् की कृपा से ही भागवान् को प्राप्त करता है। भक्ति, ज्ञान और कर्म में जहाँ साधना को महत्त्व प्राप्त है, वहाँ चौथे मार्ग में साधना के स्थान पर कृपा को ही सब कुछ स्वीकार किया गया है। इस प्रकार उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को अर्थात् समर्थ और असमर्थ दोनों को ही भगवान् को ओर अग्रसर करने की चेष्टा की है। समर्थ भी श्रीराम के द्वारा धन्य हो सकता है और असमर्थ भी।
‘रामायण’ में चार आचार्यों की भी कल्पना की गयी—ज्ञानघाट के आचार्य श्री शंकरजी, भक्तिघाट के श्री काकभुशुण्डिजी, कर्मघाट के श्री याज्ञवल्क्यजी और शरणागति तथा दैन्यघाट के श्रीगोस्वामीजी स्वतः हैं। यदि हम श्री हनुमानजी के सम्बन्ध में विचार करें कि श्री हनुमानजी इन चारों घाटों में से किस घाट के आचार्य हैं ? या किस साधना पद्धति के द्वारा भगवान के पास पहुँचने का पथ प्रशस्त करते हैं ? तो हनुमानजी के चरित्र में यह विलक्षणता मिलेगी कि कर्म की दृष्टि से देखें तो उनमें कर्म की पूर्णता है, यदि भक्ति की दृष्टि से देखें तो उनमें भक्ति की पूर्णता है, ज्ञान की दृष्टि से देखें तो उनमें ज्ञान की पूर्णता है और शरणागति की दृष्टि से देखें तो उनमें दैन्य और शरणागति की भी पराकाष्ठा है। इन चारों का एक ही पात्र में जो अद्भुत समन्वय आपको मिलेगा, वह श्री हनुमानजी हैं। इसीलिए श्री हनुमानजी जिन लोगों को भगवान् से मिलाते हैं, उनमें बड़ी भिन्नता होती है।
हनुमान्जी के चरित्र में एक सूत्र आपको और मिलेगा कि हनुमानजी का रूप सर्वदा बदलता रहता है। वे ही हनुमानजी कहीं लघु हैं, कहीं अति लघु हैं, ये दोनों शब्द भी आपको मिलेंगे। लंका जलाने के पश्चात्-
पूछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता के आगे ठाढ़ भयउ कर जोरि।।5/26
यहाँ ‘लघु’ शब्द का प्रयोग है और जब लंका में पैठने
लगे तब
सुरसा के सामने पहले तो विशाल रूप प्रकट करते हैं, परन्तु जब सुरसा ने सौ
योजन का मुँह फैलाया तो हनुमानजी ने लघु नहीं ‘अति
लघु’ रूप
बनाया—
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। 5/1/10
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।। 5/1/10
कभी लघु बन जाते हैं, कभी अति लघु, कभी विशाल बन जाते हैं और उसमें भी कभी
बड़े होते हुए हल्के होते हैं तो कभी भारी भी होते हैं। क्या यह हनुमानजी
में कोई जादूगरी है ? समुद्र लाँघने के पूर्व वे विशाल भी बने और उस समय
विशाल बनने के साथ-साथ उनका भार इतना था कि लिखा गया—
जोहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेऊ सो गा पाताल तुरंता।।5/0/7
चलेऊ सो गा पाताल तुरंता।।5/0/7
जिस पर्वत पर चरण रखकर हनुमानजी छलाँग लगते हैं, वह पर्वत हनुमानजी के बोझ
से तुरन्त पाताल चला गया। यहाँ हनुमानजी विशाल भी हैं और भारी भी और जब
लंका जलाने लगे तो विशाल तो इतने बन गये कि—
हरि प्रेरित तेहिं अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।5/25
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास।।5/25
हनुमानजी ने अपने शरीर को इतना बढ़ा लिया कि वे आकाश को छूने लगे। ऐसा लगा
कि समुद्र लाँघते समय भी बड़े बने थे और अब लंका जलाते समय भी बहुत बड़े
बन गये, परन्तु नहीं, दोनों में एक अन्तर है कि समुद्र लाँघते समय वे
विशाल भी थे और भारी भी, परन्तु लंका जलाते समय विशाल तो थे,
परन्तु—
देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।5/25/1
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई।।5/25/1
शरीर जितना ही विशाल है, भार की दृष्टि से वे उतने ही हल्के हैं। इस
प्रकार अलग-अलग रूपों में जो हनुमानजी के दर्शन है, इसका तात्त्विक
अभिप्राय यह है कि जो चार पक्ष हैं, हनुमानजी इन चारों पक्षों के आचार्य
हैं और जिस समय जिस समस्या का समाधान करने के लिए जिस पक्ष को प्रधानता
देनी चाहिए, हनुमानजी उसी को प्रधानता देते हैं। अगर गहराई से विचार करके
देखें तो चारों योगों में मुख्यता भले ही किसी एक को दी जाय, परन्तु
आवश्यकता है इन चारों योगों की या चारों मार्गों के समन्वय की।
जिस योग का उपयोग जिस समय किया जाना चाहिए, अगर व्यक्ति उस योग का सही-सही उपयोग करेगा तो वह योग कल्याणकारी होगा और यदि असमय में या जिस समय उस योग का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यदि उसका प्रयोग करेगा तो वह कल्याणकारी सिद्ध नहीं होगा। एक व्यावहारिक दृष्टान्त आपको दें कि एक ओर वैराग्य और शरीर का मिथ्यात्व है, शरीर और संसार मिथ्या है अनित्य है आदि बातें कही जाती हैं। वैराग्य का मुख्य रूप से ज्ञान से सम्बन्ध है, लेकिन यदि हम किसी डाक्टर या वैद्य के पास अपना रोग लेकर जायँ और वह हमें शरीर के मिथ्यात्व का उपदेश देने लगे कि शरीर तो नाशवान् है, एक न एक दिन तो शरीर की मृत्यु होनी ही है, तुम शरीर की चिन्ता क्यों करते हो ? तो कौन उस डाक्टर के पास बैठना पसन्द करेगा ? उस समय वैराग्य की अपेक्षा नहीं है, डाक्टर को शरीर की अनित्यता का उपदेश नहीं देना चाहिए। वैराग्य का भाषण देना, उसका काम नहीं है। हमारे शास्त्र तो दोनों तरह की बातें करते हैं। शास्त्र यह भी कहते हैं कि—
जिस योग का उपयोग जिस समय किया जाना चाहिए, अगर व्यक्ति उस योग का सही-सही उपयोग करेगा तो वह योग कल्याणकारी होगा और यदि असमय में या जिस समय उस योग का प्रयोग नहीं करना चाहिए, यदि उसका प्रयोग करेगा तो वह कल्याणकारी सिद्ध नहीं होगा। एक व्यावहारिक दृष्टान्त आपको दें कि एक ओर वैराग्य और शरीर का मिथ्यात्व है, शरीर और संसार मिथ्या है अनित्य है आदि बातें कही जाती हैं। वैराग्य का मुख्य रूप से ज्ञान से सम्बन्ध है, लेकिन यदि हम किसी डाक्टर या वैद्य के पास अपना रोग लेकर जायँ और वह हमें शरीर के मिथ्यात्व का उपदेश देने लगे कि शरीर तो नाशवान् है, एक न एक दिन तो शरीर की मृत्यु होनी ही है, तुम शरीर की चिन्ता क्यों करते हो ? तो कौन उस डाक्टर के पास बैठना पसन्द करेगा ? उस समय वैराग्य की अपेक्षा नहीं है, डाक्टर को शरीर की अनित्यता का उपदेश नहीं देना चाहिए। वैराग्य का भाषण देना, उसका काम नहीं है। हमारे शास्त्र तो दोनों तरह की बातें करते हैं। शास्त्र यह भी कहते हैं कि—
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।
-कुमारसम्भवम्
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